उलझनों और कशमकश में उम्मीद की ढाल लिए बैठा हूं,
ए जिंदगी तेरी हर चाल के लिए मैं दो चाल लिए बैठा हूं।
लुफ्त उठा रहा हूं मैं भी आंख मिचौली का,
मिलेगी कामयाबी ये हौसला कमाल का लिए बैठा हूं ।
चल मान लिया दो-चार दिन नहीं मेरे मुताबिक ,
गिरेबान में अभी भी अपने उम्मीद भरा साल लिए बैठा हूं।
ये गहराइयां, ये लहरें, ये तूफान जमाने को मुबारक
मुझे क्या फिक्र किश्तियाँ और दोस्त बेमिसाल लिए बैठा हूँ।
सोशल नेटवर्किंग से प्राप्त शायरी.. रचनाकर का पता नहीं
लेकिन सामयिक है ...साभार सहित